भारत में 750 से 1200 की अवधि के दौरान, कई महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रवृत्तियों और धार्मिक परिस्थितियों ने उपमहाद्वीप के सामाजिक ताने-बाने को आकार दिया। आइए कुछ प्रमुख पहलुओं का अन्वेषण करें:
1. सांस्कृतिक रुझान:
– भक्ति आंदोलन: भक्ति आंदोलन, जिसने व्यक्तिगत भक्ति और परमात्मा के साथ सीधे संबंध पर जोर दिया, इस अवधि के दौरान गति प्राप्त की। रामानुज, नयनार, अलवर और बसवन्ना जैसे भक्ति संतों ने विभिन्न देवताओं की भक्ति का प्रचार किया और क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में योगदान दिया।
2. धार्मिक परिस्थितियाँ:
– मंदिरों का महत्व: इस समय के दौरान मंदिर धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे। वे न केवल पूजा के स्थान थे बल्कि शिक्षा, कला और सामुदायिक सभाओं के केंद्र के रूप में भी कार्य करते थे। जटिल नक्काशियों और विस्तृत मूर्तियों को प्रदर्शित करते हुए मंदिर की वास्तुकला अपने चरम पर पहुंच गई।
– मठवासी संस्थाएँ: मठीय संस्थाएँ, विशेष रूप से बौद्ध और जैन, ने अपना महत्व बनाए रखा। नालंदा और विक्रमशिला जैसे बौद्ध मठवासी विश्वविद्यालय शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे, जो पूरे एशिया के विद्वानों को आकर्षित करते थे। जैन मठवासी केंद्रों ने धार्मिक शिक्षाओं और छात्रवृत्ति को बढ़ावा दिया।
– शंकराचार्य: एक प्रभावशाली दार्शनिक और धर्मशास्त्री शंकराचार्य ने इस अवधि के दौरान हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया और अद्वैत वेदांत दर्शन का प्रचार किया। उनकी शिक्षाओं का उद्देश्य व्यक्तिगत आत्मा (आत्मान) और सार्वभौमिक चेतना (ब्रह्म) की एकता स्थापित करना था।
– इस्लाम: इस अवधि के दौरान इस्लाम ने भारत में महत्वपूर्ण पैठ बनानी शुरू की। 8वीं शताब्दी की शुरुआत में सिंध पर अरब की विजय ने इस्लाम के प्रसार का मार्ग प्रशस्त किया। मुस्लिम व्यापारियों, सूफी संतों और बाद के तुर्क आक्रमणों ने भारत के विभिन्न हिस्सों में मुस्लिम समुदायों के विकास में योगदान दिया।
– सूफीवाद: इस्लाम के एक रहस्यमय आयाम सूफीवाद ने लोकप्रियता हासिल की और बड़ी संख्या में अनुयायियों को आकर्षित किया। सूफी संतों ने धार्मिक सीमाओं को लांघकर व्यक्तिगत आध्यात्मिकता, प्रेम और ईश्वर के प्रति समर्पण पर जोर दिया। उन्होंने अपनी शिक्षाओं के माध्यम से और सूफी आदेशों (सिलसिलों) की स्थापना करके इस्लाम को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
3. कला और वास्तुकला:
– मंदिर वास्तुकला: जटिल पत्थर की नक्काशी, विशाल मंदिर टावर (गोपुरम), और उत्कृष्ट मूर्तियां इस अवधि के दौरान मंदिर वास्तुकला की विशेषता थी। उल्लेखनीय उदाहरणों में खजुराहो मंदिर, कोणार्क में सूर्य मंदिर और तंजावुर में बृहदेश्वर मंदिर शामिल हैं।
– इस्लामी वास्तुकला: तुर्क आक्रमणों ने फ़ारसी और मध्य एशियाई वास्तुशिल्प प्रभावों को पेश किया। उल्लेखनीय उदाहरण दिल्ली में कुतुब मीनार, अजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा और अहमदाबाद की उत्कृष्ट मस्जिदें हैं।
4. साहित्य और विज्ञान:
– साहित्य: इस अवधि में क्षेत्रीय भाषाओं और साहित्य का विकास हुआ। कालिदास की कविता और रामायण और महाभारत जैसे महान महाकाव्य जैसे उल्लेखनीय कार्यों के साथ संस्कृत साहित्य का विकास जारी रहा। तमिल, कन्नड़ और बंगाली जैसी भाषाओं में क्षेत्रीय साहित्य को भी प्रमुखता मिली।
– विज्ञान: पहले के भारतीय ज्ञान के आधार पर वैज्ञानिक और गणितीय प्रगति की गई। आर्यभट्ट और भास्कर जैसे विद्वानों ने खगोल विज्ञान और गणित में योगदान दिया। चरक संहिता और सुश्रुत संहिता जैसे चिकित्सा ग्रंथों ने चिकित्सा के क्षेत्र को आगे बढ़ाया।
कुल मिलाकर, इस अवधि के दौरान भारत का सांस्कृतिक, धार्मिक और बौद्धिक परिदृश्य गतिशील था, जिसमें कई धार्मिक परंपराओं, वास्तुशिल्प चमत्कारों, विविध साहित्य और वैज्ञानिक उपलब्धियों का महत्वपूर्ण योगदान था।